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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र

सरल प्रश्नोत्तर समूह

प्रकाशक : सरल प्रश्नोत्तर सीरीज प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :160
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2642
आईएसबीएन :0

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बीए सेमेस्टर-3 दर्शनशास्त्र : सर्ल प्रश्नोत्तर

प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।

सम्बन्धित लघु उत्तरीय प्रश्न
1. काण्ट द्वारा प्रतिपादित प्रथम नैतिक सूत्र लिखिए।
2. काण्ट द्वारा प्रतिपादित द्वितीय नैतिक सूत्र लिखिए।
3. काण्ट द्वारा प्रतिपादित तृतीय नैतिक सूत्र लिखिए।

उत्तर -

काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र

काण्ट ने अपने नैतिक सिद्धान्त में कर्तव्य के लिए कर्त्तव्य की बात पर विशेष बल दिया। काण्ट ने यह बात निरपेक्ष आदेश के रूप में कही। परन्तु बाद में काण्ट ने यह अनुभव किया कि इस मान्यता से कोई व्यावहारिक निर्देश प्राप्त नहीं होते जबकि इन नैतिक नियमों को जीवन में उतारने के लिए कुछ सामान्य रूप से व्यावहारिक नियम भी होने चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए काण्ट ने तीन व्यावहारिक नियम प्रतिपादित किये जिन्हें काण्ट के नैतिक सूत्र के नाम से जाना जाता है। ये सूत्र निम्नलिखित हैं-

काण्ट ने अपने प्रथम नैतिक सूत्र को इन शब्दों में स्पष्ट किया "सदा उस सिद्धान्त के अनुसार कार्य करो जिसे तुम एक सार्वभौम नियम बन जाने की इच्छा कर सको।'

"Act only on that maxim (or principle) which you can at the same time will become a univarsal law."  - Kant

इस नियम के अनुसार, व्यक्ति को उसी प्रकार के कर्म करने चाहिए जिसे यदि अन्य समस्त व्यक्ति भी अपनाने लगें तो उन्हें कोई कष्ट न हो। काण्ट ने इस सूत्र को स्पष्ट करने के लिए शपथ तोड़ने के उदाहरण को प्रस्तुत किया है। जब कोई व्यक्ति शपथ तोड़ता है तो उसे विचार करना चाहिए कि यदि सभी व्यक्ति शपथ तोड़ने लगे तो क्या होगा? इस नियम को सार्वभौमिक रूप में प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। व्यक्ति के लिए वही कर्म उचित होता है जिसे सार्वभौमिक रूप में स्वीकार किया जा सके।

आलोचना

काण्ट के इस सूत्र को स्वीकार नहीं किया गया। इसके विरोध में अनेक बातें कही गई, जो निम्नलिखित हैं

(1) कठोरतावादी सूत्र - काण्ट के प्रथम नैतिक सूत्र में कठोर दृष्टिकोण को अपनाया गया है तथा हर प्रकार के अपवाद का विरोध किया गया है, जिस कारण यह नियम अत्यधिक कठोर बन गया। जैकोबी के अनुसार "नियम मनुष्य के लिए बनाए जाते हैं, मनुष्य नियम के लिए नहीं होते।"

(2) कोई निश्चित नियम नहीं - काण्ट ने अपने इस नैतिक सूत्र में कोई निश्चित नियम प्रतिपादित नहीं किया। वास्तव में इस सूत्र द्वारा उद्देश्य प्राप्ति सम्भव नहीं है। किसी कार्य के विषय में नैतिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर ही कार्य किया जा सकता है। परिस्थितियाँ सदैव समान नहीं होती हैं, अतः परिस्थितियों के भिन्न होने की स्थिति में कोई कर्म किस प्रकार नैतिक या अनैतिक माना जा सकता है। 

(3) अपवादों को महत्व न देना - काण्ट ने अपने सूत्र में अपवादों को कोई स्थान नहीं दिया। परन्तु यह आवश्यक है कि अपवादों को भी महत्व प्रदान किया जाए। उदाहरण के लिए देश अथवा जाति के सम्मान की रक्षा पर कुछ व्यक्तियों के बलिदान की बात स्वीकार की जा सकती है परन्तु देश या समाज के सभी व्यक्तियों पर यह बात लागू नहीं की जा सकती है।

(4) व्यावहारिकता का अभाव - नैतिक नियम या सूत्र को अनिवार्य रूप से व्यावहारिक होना चाहिए। काण्ट का सिद्धान्त कठोरतावादी होने के कारण अव्यावहारिक बन गया है। काण्ट ने अपने प्रथम सूत्र में नीतिशास्त्र के सामाजिक पक्ष पर अत्यधिक महत्व दिया।

काण्ट द्वारा प्रतिपादित द्वितीय नैतिक सूत्र

काण्ट ने अपना दूसरा नैतिक सूत्र इन शब्दों में प्रस्तुत किया "इस प्रकार कार्य करो कि मानवता को चाहे वह तुम्हारे अपने व्यक्तित्व में हो अथवा किसी दूसरे के व्यक्तित्व में, सदैव साध्य के रूप में प्रयोग करो, साधन के रूप में नहीं।'

"So act as to treat humanity wheather in thine own person or in that of any other always as an end and never as a means."  -  Kant

नैतिकता के इस नियम को मानने के पश्चात् व्यक्ति स्वयं को किसी भी प्रकार का दुःख नहीं पहुँचाता। इसके अनुसार, व्यक्ति यदि किसी के लिए अपने हित का भी त्याग करता है तो वह भी अनुचित है। इस प्रकार व्यक्ति दूसरों के लिए साधन के रूप में प्रयोग होता है। व्यक्ति को इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखना चाहिए कि अन्य व्यक्ति उसका शोषण किसी भी दशा में न करें। इस नियम के अनुसार, आत्महत्या बहुत गलत कार्य है क्योंकि व्यक्ति इस आधार पर अपनी अन्तःस्थ मानवता का विरोध करता है।

काण्ट ने इस सूत्र के आधार पर स्पष्ट किया है कि झूठ बोलकर आप किसी व्यक्ति को धोखा दे सकते हैं, यह किसी स्थिति में उचित नहीं है। व्यक्ति को स्वयं तथा अन्य व्यक्तियों के व्यक्तित्व का उचित सम्मान करना चाहिए।

काण्ट के अनुसार, "सदैव अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करो और अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करके दूसरों को सुखी बनाने की चेष्टा करो, क्योंकि तुम दूसरों को पूर्ण नहीं बना सकते।'

आलोचना - यह सूत्र नैतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। व्यक्ति के द्वारा अपने व्यक्तित्व का सम्मान करना उत्तम है। काण्ट के अनुसार किसी भी व्यक्ति को साधन के रूप में नहीं देखना चाहिए। परन्तु इससे सम्बन्धित कुछ अपवाद भी हैं, जैसे देश की रक्षा, सत्य की खोज, विशिष्ट ज्ञान की प्राप्ति तथा उसके प्रचार-प्रसार के लिए कुछ व्यक्तियों के अतिरिक्त प्रयास व त्याग। इसी प्रकार कभी-कभी समाज में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ भी उत्पन्न हो जाती हैं जिसमें कुछ व्यक्तियों या पूरे समाज के हित के लिए व्यक्ति को साधन रूप में इस्तेमाल करना पड़ जाता है।

उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति को कोई भयंकर संक्रामक बीमारी हो जाए तो समाज या देश हित के लिए उसे पूरे समाज या देश से अलग भी करना पड़ सकता है तथा उसका बहिष्कार भी किया जा सकता है। अतः कहा जा सकता है कि इस सूत्र के अनेक अपवाद भी हैं।

काण्ट द्वारा प्रतिपादित तृतीय नैतिक सूत्र 

काण्ट ने अपना तीसरा सूत्र इन शब्दों में प्रतिपादित किया "एक साध्यों के राज्य के एक सदस्य के रूप में कार्य करो।""

"Act as a member of a kingdom of ends." -Kant

इस सूत्र को इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है कि व्यक्ति को चाहिए कि वह इस प्रकार कार्य करे कि स्वयं को तथा प्रत्येक व्यक्ति को आन्तरिक मूल्य वाला समझकर उसके प्रति व्यवहार करे। व्यक्ति को एक ऐसे समाज के सदस्य के रूप में व्यवहार करना चाहिए जिससे वह अपने आप को शुभ व समान मूल्य वाला समझे। काण्ट ने एक ऐसे साध्यों के राज्य की स्थापना की बात भी कही जोकि स्वयं ही नैतिक दृष्टि से आदर्श समाज होगा तथा समाज के समस्त सदस्य नैतिक नियमों का पालन करेंगे। इन नियमों का आधार बौद्धिक होगा। ये सार्वभौमिक नियम होंगे। इन नियमों का पालन करने वाले व्यक्तियों में सामंजस्य पाया जायेगा।

काण्ट के इस सूत्र के अनुसार नैतिक राज्य पूर्ण राज्य है। इस नैतिक क्षेत्र में समस्त सदस्य एक-दूसरे को समान व्यक्ति के रूप में देखते हैं तथा स्वाभाविक रूप से बौद्धिक नियमों का पालन करते हैं। काण्ट के अनुसार नैतिक आत्म- आरोपित नियम हैं। ये न तो दैवी आदेश हैं और न ही बाहरी नियम है। आत्म-आरोपित होने के कारण इन पर कोई बाहरी दबाव भी नहीं होता है। काण्ट के अनुसार सद्गुण तथा आनन्द में सामंजस्य होना चाहिए।

आलोचना - काण्ट के इस सूत्र के विरोध में अनेक बातें कही गयीं, जो निम्नवत् हैं - 

(1) व्यावहारिकता का अभाव - काण्ट के द्वारा प्रस्तुत इस सूत्र का कोई व्यावहारिक महत्व नहीं है। यह सूत्र व्यावहारिक जीवन के प्रति कोई निर्देश नहीं देता। यह सूत्र हमें इस बात के लिए कोई उपाय नहीं बताता कि समाज में अन्य व्यक्तियों के लिए क्या शुभ है तथा हमें किस प्रकार का कार्य करना चाहिए।

(2) मनोवैज्ञानिक द्वैत का आरोप - काण्ट ने अपने नैतिक सूत्र को बुद्धि तथा संवेगशीलता में मनोवैज्ञानिक द्वैत के कल्पना आधार पर प्रस्तुत किया है। काण्ट के अनुसार बुद्धि तथा संवेगशीलता एक-दूसरे के विरोधी हैं। काण्ट के अनुसार ये परस्पर सम्बद्ध हैं। वास्तव में बुद्धि तथा संवेगशीलता दोनों एक ही व्यक्ति के पक्ष हैं जो परस्पर सम्बद्ध हैं। इस स्थिति में संवेगशीलता तथा बुद्धि में विरोध को अनिवार्य मानना उचित नहीं है। नैतिक जीवन में बुद्धि तथा संवेगशीलता दोनों का होना आवश्यक है।

(3) आनन्द के लिए संवेगशीलता आवश्यक - काण्ट ने आनन्द की प्राप्ति को मुख्य माना है तथा आनन्द में सुख को निहित माना है। काण्ट ने संवेगशीलता की भी अवहेलना की है। विद्वानों के अनुसार, इच्छाओं को दमित कर आनन्द की प्राप्ति सम्भव नहीं है।

(4) एकाँगी सूत्र  -काण्ट का सिद्धान्त एकांगी सूत्र है। काण्ट ने सम्पूर्ण परिस्थिति के नैतिक मूल्य को स्वीकार नहीं किया है। काण्ट ने कर्मों के परिणाम की पूर्ण अवहेलना की बात कही है। इस आधार पर यदि कर्म के परिणाम का बिल्कुल ध्यान न रखा जाए तो कर्तव्यपालन को उचित नहीं कहा जा सकता है।

काण्ट द्वारा प्रतिपादित चतुर्थ नैतिक सूत्र

अपने आपको उसी समय अपने नियम के माध्यम से इस प्रकार कार्य कीजिए कि आपका संकल्प सार्वभौमिक नियम बनाने वाला समझे।

यह प्रथम सूत्र की पुनरावृत्ति है, परन्तु बात ऐसी नहीं है। ध्यान से देखा जाय तो यह सूत्र से भिन्न है। प्रथम सूत्र में बौद्धिक प्राणी को सार्वभौमिक नियम के पालन के लिए कहा गया है अर्थात् सार्वभौमिक नियम का सूत्र सार्वभौमिकता के नियम से सम्बन्धित है, परन्तु स्वतंत्रता का सूत्र बौद्धिक प्राणी को उस सार्वभौम नियम के निर्माता के रूप में मानता है अर्थात् इसका सम्बन्ध सार्वभौम नियम के निर्माता की स्वतंत्रता से है।

सारांश यह है कि बुद्धियुक्त प्राणी सार्वभौम नियम के अधीन तो रहता है, परन्तु उसका निर्माता वह स्वयं है। इस नियम के निर्माण करने और उसके पालन में स्वतंत्रता होनी चाहिए। यदि स्वतंत्रता नहीं रहती तो यह नियम दोषग्रस्त होता है, कार्य अनैतिक सिद्ध होता है। स्वतंत्रता से निर्माण किया जाना और स्वतंत्रता से उस नियम का पालन किया जाना ही नैतिक कर्तव्य है।

आलोचना - निरपेक्ष आदेश कहता है कि 'कार्य करना चाहिए वह यह नहीं कहता है कि यदि अमुक वस्तु प्राप्त हो तो अमुक कार्य करना चाहिए। कान्ट के 'स्वार्थ के त्याग' का अर्थ है निरपेक्ष आदेश का 'स्वार्थ पर निर्भर न होना।' निरपेक्ष आदेश स्वार्थ पर आधारित नहीं है। ठीक इसी अर्थ में कान्ट सभी स्वार्थों के त्याग की चर्चा करते हैं।

काण्ट द्वारा प्रतिपादित पाँचवाँ सूत्र

"ऐसा कर्म कीजिए कि मानों आप सदा अपने नियम के माध्यम से साध्यों के एक सार्वभौम साम्राज्य के विधायक सदस्य हों।"

काण्ट यह कहते हैं कि सार्वभौम नियम का पालन करने वाला प्रत्येक व्यक्ति स्वयं साध्य है। वह स्वतंत्र है क्योंकि अपने नियम की रचना स्वयं आत्मप्रेरित होकर करता है। वह साधन नहीं साध्य है। इस प्रकार साध्यों का एक साम्राज्य है। इस साम्राज्य में प्रत्येक व्यक्ति एक सदस्य के रूप में है। इसमें प्रत्येक व्यक्ति एक-दूसरे के व्यक्तित्व का सम्मान करता है और स्वतः निर्माण किए गये नियमों के अनुसार कार्य करता है। इस सूत्र में सभी अन्य सूत्रों का समन्वय हो जाता है। जैसे साध्यों के साम्राज्य में प्रत्येक व्यक्ति सार्वभौम नियम से कार्य करता है। वह स्वयं साध्य है, किसी का साधन नहीं और वह स्वतंत्र है क्योंकि बाह्य नियम या शक्ति द्वारा प्रेरित होकर कार्य नहीं करता बल्कि अपने ही द्वारा बनाए गये नियम को अपने ऊपर लागू करता है। इस प्रकार यह सूत्र समन्वयकारी सिद्ध होता है।

आलोचना - सी. डी. ब्राड ने इस सूत्र के विरोध में अस्पष्टता का दोष व्यक्त किया है। उनके शब्दों में 'सूत्र में एक महत्वपूर्ण सत्य निहित है, यद्यपि यह बहुत बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त किया गया है। यह आवश्यक नहीं कि आचरण का कोई सिद्धान्त आत्मरोपित हो, निःसन्देह यह संदेहास्पद है कि प्रत्यय से कोई स्पष्ट अर्थ निकलता हो। परन्तु यह सत्य है कि सिद्धान्त के लिए किये गये किसी कार्य का तब तक कोई नैतिक मूल्य नही है जब तक कर्त्ता स्वतंत्र रूप से और इच्छापूर्वक उस सिद्धान्त को नहीं स्वीकार करता है जिसके लिए यह किया गया हो।

इस प्रकार ब्राड के अनुसार इन दोनों दशाओं में भी सिद्धान्त को स्वीकार करना तथा उसके अनुसार कार्य करना नैतिक ही माना जायेगा चाहे उसकी सत्यता को देखने में हम समर्थ न भी हों। अतः आवश्यक नहीं कि कार्य आत्मप्रेरित ही हो। आलोचकों ने इस सूत्र में अस्पष्टता और अपूर्णता का दोष पाया है। कुछ लोग इसे मात्र आकारिक ही कहते हैं। उनके अनुसार किसी विशेष परिस्थिति में व्यक्ति का क्या कर्तव्य होना चाहिए यह सूत्र नहीं व्यक्त करता। अन्य सूत्रों की तरह यह भी अस्पष्ट और असंगत है।

काण्ट के नीतिशास्त्र की विशेषताएँ

काण्ट ने नीतिशास्त्र में कठोरतावाद का प्रतिपादन किया। उसने कर्तव्य के लिए कर्तव्य की बात कही। काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-

(1) सार्वभौमिक तथा निरपेक्ष नैतिक नियमों का समर्थन - काण्ट ने अपने नीतिशास्त्र में सार्वभौमिक तथा निरपेक्ष नियमों का समर्थन किया है। काण्ट का निरपेक्ष सिद्धान्त सुखवाद के सिद्धान्त से भिन्न है। यह सुखवाद की कुछ कमियों को दूर करता है। 

(2) बुद्धि की श्रेष्ठता की स्थापना - काण्ट का सिद्धान्त बुद्धि की श्रेष्ठता की स्थापना करता है। काण्ट के अनुसार "बुद्धि ही एकमात्र ऐसा तत्व है जो किसी मनुष्य को व्यक्ति की संज्ञा प्रदान करता है।' बौद्धिक जीवन ही शुभ माना गया है। अतः कहा जा सकता है कि काण्ट ने बुद्धि की श्रेष्ठता का प्रतिपादन किया।

(3) अन्तरात्मा के अस्तित्व में आस्था - काण्ट ने अपने नीतिशास्त्र में अन्तरात्मा के अस्तित्व में आस्था प्रकट की है। इनके अनुसार, व्यक्ति की अन्तरात्मा सदैव उसे गलत कार्यों को करने से रोकती है। यदि व्यक्ति अपनी अन्तरात्मा के विरुद्ध कार्य करता है तो वह नैतिकता के नियमों की अवहेलना करता है।

काण्ट के नीतिशास्त्र की आलोचना

काण्ट के नीतिशास्त्र की समस्त बातें मान्य नहीं हुई। अतः उनके सिद्धान्त की आलोचना भी की गई - 

(1) व्यावहारिक निर्देश नहीं है - काण्ट ने बुद्धिवाद का समर्थन किया। परन्तु वास्तव में काण्ट का सिद्धान्त कोरा आकारवादी सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त में नैतिकता के क्षेत्र में व्यावहारिकता का पूर्णतः अभाव है। काण्ट ने कहीं-कहीं इससे सम्बन्धित कुछ संकेत दिए हैं परन्तु वे अस्पष्ट हैं।

(2) कठोरतावाद का समर्थन - काण्ट का सिद्धान्त एक कठोरतावादी सिद्धान्त था। काण्ट ने एक तरफ नैतिक जीवन में भावनाओं की अवहेलना की वहीं दूसरी तरफ उसने नैतिक नियमों में अपवादों का भी विरोध किया। वास्तव में काण्ट का सिद्धान्त नैतिक जीवन का पूर्ण सिद्धान्त नहीं है क्योंकि नैतिक जीवन से पूर्णतया भावनाओं को निकाला नहीं जा सकता।

(3) व्यक्तिवाद पर बल - काण्ट का सिद्धान्त व्यक्तिवाद पर अधिक बल देता है। वास्तव में बुद्धिवाद को अधिक समर्थन देने के कारण भी काण्ट का सिद्धान्त व्यक्तिवाद सिद्धान्त बन गया है क्योंकि सामाजिकता का विकास तो भावनाओं पर निर्भर होता है। 

(4) परम शुभ की संकुचित भावना - काण्ट ने परम शुभ की संकुचित भावना पर बल दिया है। काण्ट के अनुसार, परम शुभ सदगुण और आनन्द तक ही सीमित है जबकि यह उचित नहीं है।

राइट के अनुसार, "परम शुभ को सद्गुण और आनन्द तक सीमित करके काण्ट उसे अत्यधिक संकीर्ण बना देता है। मानव का पूर्ण शुभ बौद्धिक, सौन्दर्यात्मक और धार्मिक मूल्यों को भी सम्मिलित करता है।' 

(5) मनोवैज्ञानिक द्वैत - काण्ट के नीतिशास्त्र के विषय में एक आलोचना यह भी है कि यह अपनी मनोवैज्ञानिक भावना को बुद्धि तथा द्वैत पर आधारित मानता है। वास्तव में मनोवैज्ञानिक द्वैत ने कठोरतावाद को ही जन्म दिया है। 

(6) आनन्द की प्राप्ति सम्भव नहीं - काण्ट ने अपने नीतिशास्त्र में आनन्द को मुख्य माना है परन्तु भावनाओं की अवहेलना करके आनन्द प्राप्ति को कठिन -सा बना दिया है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि काण्ट ने अपने सिद्धान्त में कुछ उचित तथा अनुचित तथ्यों का समावेश किया है।

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    अनुक्रम

  1. प्रश्न- गीता में वर्णित स्थितप्रज्ञ की अवधारणा की विवेचना कीजिए।
  2. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित लोक संग्रह की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  3. प्रश्न- गीता के नैतिक या आदर्श सिद्धान्त का संक्षिप्त विश्लेषण कीजिए।
  4. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की विस्तारपूर्वक व्याख्या कीजिए।
  5. प्रश्न- गीता में वर्णित गुण की विवेचना कीजिए।
  6. प्रश्न- गीता में प्रतिपादित स्वधर्म की अवधारणा को स्पष्ट कीजिए।
  7. प्रश्न- गीता में वर्णित योग शब्द की विवेचना कीजिए।
  8. प्रश्न- गीता में वर्णित वर्ण एवं आश्रम का विवेचन कीजिए।
  9. प्रश्न- स्थितप्रज्ञ के लक्षण क्या हैं? क्या मनुष्य जीवन में इस स्थिति को प्राप्त कर सकता है? संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  10. प्रश्न- निष्काम कर्मयोग का परिचय दीजिए।
  11. प्रश्न- गीता में प्रवृत्ति और निवृत्ति से आप क्या समझते हैं?
  12. प्रश्न- कर्म के सिद्धान्त का महत्व बताइए।
  13. प्रश्न- कर्म सिद्धान्त के दोष बताइए।
  14. प्रश्न- कर्मयोग के सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  15. प्रश्न- लोक संग्रह पर टिप्पणी लिखिए।
  16. प्रश्न- भगवद्गीता में 'लोकसंग्रह के आदर्श' की विवेचना कीजिए।
  17. प्रश्न- पुरुषार्थ के अर्थ एवं महत्व की विवेचना कीजिए।
  18. प्रश्न- पुरुषार्थ की अवधारणा व विशेषताएँ स्पष्ट कीजिए।
  19. प्रश्न- सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त के रूप में पुरुषार्थ की व्याख्या कीजिए।
  20. प्रश्न- विभिन्न पुरुषार्थ की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  21. प्रश्न- पुरुषार्थ का विश्लेषण कीजिए।
  22. प्रश्न- पुरुषार्थ में सन्निहित मानवीय मूल्यों के अन्तर्सम्बन्ध की व्याख्या कीजिए।
  23. प्रश्न- पुरुषार्थ किसे कहते हैं?
  24. प्रश्न- धर्म किसे कहते हैं?
  25. प्रश्न- अर्थ किसे कहते हैं?
  26. प्रश्न- काम किसे कहते हैं?
  27. प्रश्न- धर्म पुरुषार्थ का जीवन में क्या महत्व है?
  28. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र में 'पुनर्जन्म के सिद्धान्त' की व्याख्या कीजिए।
  29. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप परिभाषा दीजिए तथा इसके क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए इसकी समस्याओं का विश्लेषण कीजिए।
  30. प्रश्न- धर्म-दर्शन एवं धर्म के परस्पर सम्बन्धों का विश्लेषणात्मक विवेचन कीजिए।
  31. प्रश्न- धर्म-दर्शन के स्वरूप की व्याख्या कीजिए। यह ईश्वरशास्त्र से किस प्रकार भिन्न है?
  32. प्रश्न- धर्म और दर्शन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  33. प्रश्न- धर्म का क्या अभिप्राय है? सामान्य धर्म के लिए मनुस्मृति में किन मानवीय गुणों का उल्लेख किया गया है?
  34. प्रश्न- विशिष्ट धर्म किसे कहते हैं? इसके प्रमुख स्वरूपों की व्याख्या कीजिए।
  35. प्रश्न- सामान्य धर्म और विशिष्ट धर्म में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  36. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? व्याख्या कीजिए।
  37. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के पंचमहाव्रत सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  38. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र के अणुव्रत सिद्धान्त का विवेचना कीजिए।
  39. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की तात्विक पृष्ठभूमि का विवेचन कीजिए।
  40. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताएँ बताइए।
  41. प्रश्न- परमश्रेय की संक्षिप्त विवेचना कीजिए।
  42. प्रश्न- जैन नीतिशास्त्र में 'त्रिरत्न' की अवधारणा की विवेचन कीजिए।
  43. प्रश्न- बुद्ध के अष्टांगिक मार्ग की व्याख्या कीजिए।
  44. प्रश्न- 'बोधिसत्व' किसे कहते हैं? स्पष्ट कीजिए।
  45. प्रश्न- निर्वाण के स्वरूप का विवेचन कीजिए।
  46. प्रश्न- 'अर्हत्' पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए।
  47. प्रश्न- बुद्ध के नीतिशास्त्र में साधन विचार का विवेचन कीजिए।
  48. प्रश्न- बौद्ध के नीतिशास्त्र सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  49. प्रश्न- गांधीवाद से आप क्या समझते हैं? राज्य के कार्यक्षेत्र के सम्बन्ध में महात्मा गांधी की विचारधारा का वर्णन कीजिए।
  50. प्रश्न- गांधीवादी दर्शन का मूल आधार धर्म (सत्य और अहिंसा) था, संक्षेप में स्पष्ट करें।
  51. प्रश्न- गांधी जी की कार्य पद्धति पर संक्षेप में प्रकाश डालिए।
  52. प्रश्न- सत्याग्रह से आप क्या समझते हैं संक्षेप में समझाइये?
  53. प्रश्न- महात्मा गाँधी द्वारा प्रतिपादित ट्रस्टीशिप सिद्धान्त की विवेचना कीजिए।
  54. प्रश्न- गाँधी जी के सात सामाजिक पाप कौन-से हैं?
  55. प्रश्न- गाँधी जी के एकादश व्रत कौन-से हैं? व्याख्या कीजिए।
  56. प्रश्न- नीतिशास्त्र से आप क्या समझते हैं? परिभाषा देते हुए इसका अर्थ स्पष्ट कीजिए।
  57. प्रश्न- नीतिशास्त्र मानवशास्त्र से किस तरह जुड़ा है? स्पष्ट कीजिये।
  58. प्रश्न- नीतिशास्त्र की विषय-वस्तु क्या है? स्पष्ट कीजिए।
  59. प्रश्न- नीतिशास्त्र से क्या अभिप्राय है? इसकी प्रकृति एवं क्षेत्र बताते हुए भारतीय एवं पाश्चात्य नीतिशास्त्र में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  60. प्रश्न- नीतिशास्त्र की प्रणालियों पर एक विस्तृत निबन्ध लिखिए।
  61. प्रश्न- टेलीलॉजिकल नैतिकता और कर्तव्य आधारित नैतिकता का क्या अर्थ है? इन दोनों में अन्तर बताइए।
  62. प्रश्न- कान्ट के नैतिक सिद्धान्त को समझाइए।
  63. प्रश्न- नैतिक विकास का क्या अर्थ है? नैतिक विकास के चरणों का उल्लेख कीजिए।
  64. प्रश्न- नीतिशास्त्र एक आदर्श निर्देशक सिद्धान्त है। व्याख्या कीजिए।
  65. प्रश्न- भारतीय नीतिशास्त्र को प्राथमिक जड़े कहाँ मिलती हैं? स्पष्ट कीजिए।
  66. प्रश्न- क्या नीतिशास्त्र एक विज्ञान है?
  67. प्रश्न- नैतिक तथा नैतिक-शून्य कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  68. प्रश्न- गीता के निष्काम कर्म की अवधारणा की व्याख्या कीजिए और उसकी काण्ट के कर्तव्य की अवधारणा से तुलना कीजिए।
  69. प्रश्न- नैतिक कर्म तथा नैतिक-शून्य कर्म में अन्तर लिखिए।
  70. प्रश्न- ऐच्छिक तथा अनैच्छिक कर्मों से आप क्या समझते हैं?
  71. प्रश्न- ऐच्छिक व अनैच्छिक कर्म में अन्तर बताइए।
  72. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? इसका स्वरूप तथा विशेषताएँ बताइए।
  73. प्रश्न- क्या नैतिक निर्णय कर्मों के परिणाम के आधार पर होता है? विवेचना कीजिए।
  74. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं अन्य निर्णयों में क्या अन्तर है?
  75. प्रश्न- 'साध्यों का साम्राज्य।' व्याख्या कीजिए।
  76. प्रश्न- नैतिक चेतना से आप क्या समझते हैं?
  77. प्रश्न- नैतिक चेतना के मुख्य तत्व बताइए।
  78. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति से आपका क्या तात्पर्य है?
  79. प्रश्न- नैतिक परिस्थिति के लक्षण बताइए।
  80. प्रश्न- नैतिक निर्णय से आप क्या समझते हैं? साधन व साध्य का नीतिशास्त्र में क्या महत्व है?
  81. प्रश्न- नैतिक निर्णय एवं तार्किक निर्णय में अंतर क्या है?
  82. प्रश्न- क्या साध्य साधन को प्रमाणित करता है?
  83. प्रश्न- नैतिक निर्णय की आवश्यक मान्यताएँ क्या हैं? व्याख्या कीजिए।
  84. प्रश्न- नैतिकता की मान्यताओं की व्याख्या कीजिए।
  85. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक मान्यताओं का वर्णन कीजिए।
  86. प्रश्न- नैतिकता में किसका प्राधिकार है "चाहिए" का या आवश्यक का।
  87. प्रश्न- अनैतिक कर्म क्या है? व्याख्या कीजिए।
  88. प्रश्न- सुखवाद से आप क्या समझते हैं? यह कितने प्रकार का होता है?
  89. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक सुखवाद से आप क्या समझते हैं? समीक्षा कीजिए।
  90. प्रश्न- प्राचीन सुखवाद की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  91. प्रश्न- विकासवादी सुखवाद क्या है?
  92. प्रश्न- उपयोगितावाद के लिये सिजविक की क्या युक्तियाँ हैं? व्याख्या कीजिए।
  93. प्रश्न- बैन्थम के उपयोगितावाद की विस्तृत व्याख्या कीजिए।
  94. प्रश्न- बैंन्थम के स्थूल परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  95. प्रश्न- मिल के परिष्कृत उपयोगितावाद का आलोचनात्मक विवरण प्रस्तुत कीजिए।
  96. प्रश्न- मिल के परिष्कृत परसुखवाद की समीक्षात्मक विवेचना कीजिए।
  97. प्रश्न- उपयोगितावाद एवं अन्तःअनुभूतिवाद के सापेक्षिक गुणों का संकेत कीजिए।
  98. प्रश्न- कर्मवाद का सिद्धान्त भारतीय दर्शन का मुख्य स्तम्भ है। व्याख्या कीजिए।
  99. प्रश्न- मिल के उपयोगितावाद की प्रमुख विशेषताएं क्या है?
  100. प्रश्न- "सुखवाद के विरोधाभास" को स्पष्ट कीजिए।
  101. प्रश्न- मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक सुखवाद में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
  102. प्रश्न- नैतिक सिद्धान्त के रूप में अन्तः प्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  103. प्रश्न- रसेन्द्रियवाद क्या है? विवेचन कीजिए।
  104. प्रश्न- दार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का समीक्षात्मक विवेचन कीजिए।
  105. प्रश्न- बटलर के अन्तःकरणवाद या अन्तःप्रज्ञावाद सिद्धान्त का विवेचन कीजिए।
  106. प्रश्न- नैतिक गुण के विषय में अन्तः प्रज्ञावाद के विचार का विवेचन कीजिए।
  107. प्रश्न- अदार्शनिक अन्तःप्रज्ञावाद का विवेचन कीजिए।
  108. प्रश्न- काण्ट के अहेतुक आदेश के सिद्धान्त का आलोचनात्मक विवेचन कीजिए।
  109. प्रश्न- बुद्धिवाद या कठोरतावाद तथा सुखवाद क्या है? वर्णन कीजिए।
  110. प्रश्न- स्टोइकवाद क्या है? व्याख्या कीजिए।
  111. प्रश्न- मध्यकालीन बुद्धिवाद या ईसाई वैराग्यवाद की व्याख्या कीजिए।
  112. प्रश्न- काण्ट के कठोरतावाद के रूप में आधुनिक बुद्धिवाद की व्याख्या कीजिए।
  113. प्रश्न- काण्ट द्वारा प्रतिपादित नैतिक सूत्र का आलोचनात्मक परिचय दीजिए।
  114. प्रश्न- काण्ट के नैतिक सिद्धान्त की व्याख्या कीजिए।
  115. प्रश्न- काण्ट के नीतिशास्त्र की प्रमुख विशेषताओं का वर्णन कीजिए एवं गीता के निष्काम कर्म से इसकी तुलना कीजिए।
  116. प्रश्न- काण्ट के बुद्धिवादी नीतिशास्त्र का समीक्षात्मक मूल्यांकन कीजिए।
  117. प्रश्न- काण्ट के अनुसार निरपेक्ष आदेश “Categorical Imprative” की व्याख्या कीजिए।
  118. प्रश्न- दण्ड के सिद्धान्त से आप क्या समझते हैं? दण्ड के प्रतिशोधात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए।
  119. प्रश्न- दण्ड के सुधारात्मक सिद्धान्त की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए। क्या मृत्युदण्ड उचित है? विवेचना किजिये।
  120. प्रश्न- दण्ड के विभिन्न सिद्धान्तों की व्याख्या कीजिए।
  121. प्रश्न- दण्ड का अर्थ तथा उद्देश्य क्या है?
  122. प्रश्न- दण्ड का दर्शन क्या है?

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